डॉ. मोनिका शर्मा
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रिक्तताएं
चले तो आये हैं दूर
अपनी धरती से
पर आत्मा में बसी
और आस्था में रमी है
उसी मिट्टी की महक
जो बांधे रहती है हमें
अपनी ही जड़ों से
इसी बुनियाद को अचल
रखने के प्रयास में हम
पराई धरा पर
मन से सींचते हैं संस्कारों को
पोषित करते हैं परम्पराओं को
फिर भी भीतर कुछ रिक्त सा है
दीखती है थोड़ी कृत्रिमता
जो विस्मृत नहीं होने देती
उस सौंधी सी गंध को, जो कहीं
भीतर ही बसी है
पतंगें यहाँ भी उड़ती हैं
उमंगें यहाँ भी खिलती हैं
जगमगाते हैं दिवाली के दीये भी
और होली के मिलन की
रीत भी निभाई जाती है
स्मरण है हमें
मातृभूमि का स्वाधीनता दिवस
हर वर्ष फहराते हैं तिरंगा
ताकि स्मरण रहे स्वदेश
जन्मभूमि से दूर
निभाते हैं हर रीत
पर ह्रदय में पीड़ा है
द्वंद्व है कुछ छूट जाने का
अपने ही भीतर कुछ टूट जाने का
तभी तो, मन भारी
और आँखों में नमी है
अर्जित उपार्जित किया बहुत
पर जाने क्या कमी है......?
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डॉ. मोनिका शर्मा
क्या खूब पिरोया आपने भावों को!
ReplyDeleteअपनी जड़ों से जुड़ाव के महत्त्व और उसकी उपादेयता को प्रतिपादित करती कविता ..सुन्दर सार्थक और सशक्त डॉ मोनिका जी , हार्दिक बधाई और शुभकामनायें !
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