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Wednesday 3 September 2014

रिक्तताए (कविता)

 डॉ. मोनिका शर्मा 

                     परिचय--- अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर डिग्री । हिंदी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य । प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (बतौर समाचार वाचक और एंकर ) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा । प्रतिष्ठित समाचार पत्रों-पत्रिकाओं में नियमित लेखन जारी । दो संयुक्त कविता संग्रहों में रचनाएँ प्रकाशित । महिलाओं और बच्चों  से जुड़े सार्थक विषयों और समसामयिक मुद्दों पर नियमित रूप से प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के सम्पादकीय पृष्ठों एवं परिशिष्टों में लेखों का प्रकाशन होता रहता है । 2009 से ब्लॉगिंग में भी सक्रिय ।

संपर्क -ईमेल-  monikasharma.writing@gmail.com ****************************************************
रिक्तताएं

चले तो आये हैं दूर
अपनी धरती से
पर आत्मा में बसी
और आस्था में रमी है
उसी मिट्टी की महक
जो बांधे रहती है हमें
अपनी ही जड़ों से
इसी बुनियाद को अचल
रखने के प्रयास में हम
पराई धरा पर
मन से सींचते हैं संस्कारों को
पोषित करते हैं परम्पराओं को
फिर भी भीतर कुछ रिक्त सा है
दीखती है थोड़ी कृत्रिमता
जो विस्मृत नहीं होने देती
उस सौंधी सी गंध को, जो कहीं
भीतर ही बसी है
पतंगें यहाँ भी उड़ती हैं
उमंगें  यहाँ भी खिलती  हैं
जगमगाते हैं दिवाली के दीये भी
और  होली के मिलन की
रीत भी निभाई जाती है
स्मरण है हमें
मातृभूमि का स्वाधीनता दिवस
हर वर्ष फहराते हैं तिरंगा
ताकि स्मरण रहे स्वदेश
जन्मभूमि से दूर
निभाते हैं हर रीत
पर ह्रदय में पीड़ा है
द्वंद्व है कुछ छूट जाने का 
अपने ही भीतर कुछ टूट जाने का 
तभी तो, मन भारी 
और आँखों में नमी है
अर्जित उपार्जित किया बहुत
पर जाने क्या कमी है......?
******************* 
डॉ. मोनिका शर्मा 



2 comments:

  1. क्या खूब पिरोया आपने भावों को!

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  2. अपनी जड़ों से जुड़ाव के महत्त्व और उसकी उपादेयता को प्रतिपादित करती कविता ..सुन्दर सार्थक और सशक्त डॉ मोनिका जी , हार्दिक बधाई और शुभकामनायें !

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